जन्मदिन पर विशेष लेख: डॉ. रमन सिंह इतने मौन क्यों?

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रायपुर 15 अक्टूबर, 2019। सियासत बड़ी बेदर्द होती है, जब देती है तो इतना कि इंसान खुद को स्वंभू समझने लगता है और जब लेती है तो इंसान खुद के अस्तित्व के लिए भी जद्दोजहद करता है। 15 साल तक जो चेहरा छत्तीसगढ़ की पहचान हुआ करता था आजकल उसे ढ़ूंढ़ना पड़ रहा है। बात भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व सीएम डॉ रमन सिंह की हो रही है, अर्श से फर्श तक कैसे पहुंचते हैं इसे डॉ रमन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता है। जो इंसान कभी सत्ता के सिरमौर रहा वो अब खुद का वजूद बचाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है।

एक सवाल इस समय छत्तीसगढ़ के साथ ही पूरा देश पूछ रहा है कि आखिर डॉ रमन सिंह इतने मौन क्यों हैं? विधानसभा चुनाव हुए करीब एक साल होने को है लेकिन डॉ साहब क्यों निष्क्रीय होते जा रहे हैं, चुनाव के समय भाजपा का स्लोगन था ‘रमन पर विश्वास है, कमल संग विकास है’ अब क्या रमन को खुद पर भरोसा नहीं रहा। क्या 15 सालों में जो विकास छत्तीसगढ़ में हुआ है वो काफी नहीं था खुद की पहचान बचाए रखने के लिए। आखिर क्यों चुनाव हारते ही डॉ रमन सिंह खुद की पहचान खोते जा रहे हैं, संगठन का भरोसा उन पर से उठता जा रहा है।

एक समय था जब डॉ रमन सिंह के इर्दगिर्द लोगों को हुजूम लगा रहता है। आज आलम यह है कि गिनेचुने लोग ही उनके पास दिखते हैं। उनके राजनीतिक रणनीतिकार रहे लोग भी अब साथ नहीं दिखते। वहीं, भाजपा के अंदरखाने भी उनका विरोध मुखर हो गया है। 14 विधायकों में से सिर्फ 4 विधायक ही उनके खेमे के माने जाते हैं। आखिर क्यों उनकी पकड़ सत्ता जाते ही संगठन पर से कम होती जा रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे डॉ रमन सिंह केन्द्रीय मंत्री होने के तुरंत बाद सीएम बन गए थे। ऐसे में विपक्ष का जो समय था वो उन्होंने देखा नहीं है। या फिर 15 साल तक सीएम रमन के बाद वे अब भी सत्ता छूटने के दुख से उबर नहीं पाए हैं। ऐसे में वे विपक्ष की भूमिका भी अच्छे से अदा नहीं कर पाए रहे हैं। एक और बात 90 में से सिर्फ 15 सीटें मिलना उसके बाद बस्तर की इकलौती सीट दंतेवाड़ा भी हार जाना भी उनकी लोकप्रियता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

ऐसे में समझा जा रहा है कि केन्द्रीय संगठन ने भले ही उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है लेकिन वे उन्हें उतनी तरजीह नहीं दे रहे हैं, जितनी मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को दी जा रही है। शिवराज सिंह को तो राष्ट्रीय सदस्यता प्रभारी बनाकर केन्द्रीय नेतृत्व ने सम्मान दिया है लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में रमन सिंह का स्टार प्रचारकों में नाम न होना इस बात का परिचायक है कि केन्द्रीय नेतृत्व उनसे नाराज है। रमन सिंह का दिल्ली दौरे की बात करें तो वे 5-7 बार ही अब तक दिल्ली गए हैं। वे ज्यादातर समय छत्तीसगढ़ में ही बिता रहे हैं। ऐसे में उनका कद लगातार गिरता जा रहा है।

रमन सिंह की गिरती लोकप्रियता की एक वजह वह खुद भी हैं भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस रमन सिंह पर मुखर होकर हमलावर रही है। नान, झीरम, अंतागढ़, डीकेएस, चिटफंड जैसे मामलो में कांग्रेस ने रमन सिंह और उनके पूरे परिवार को घेर रखा है। इतना ही नहीं रमन सिंह के नजदीकियों पर भी सरकार ने नकेल कसी है। ऐसे में डॉ रमन सिंह अपने ऊपर लगे आरोपों पर हमेशा बचाव की मुद्रा में ही रहे, कभी भी आक्रामक नहीं दिखे। जो कहीं न कहीं उनकी इन घोटालों में संलिप्तता की और इशारा करता है।

अंतागढ़ टेपाकांड मामले में तो मंतूराम पवार सीधे पैसे के लेनदेन का आरोप डॉ सिंह पर लगाते हैं, वहीं नान घोटाले के आरोपी शिवशंकर भट्ट भी रमन सिंह पर गंभीर आरोप लगाते हैं। ऐसे में रमन सिंह प्रेसवार्ता कर अपने ऊपर लगे आरोपों से पल्ला झाड़कर इतिश्री कर लेते हैं। जबकि यदि वे निर्दोष हैं तो उन्हें खुलकर कांग्रेस और भूपेश बघेल पर हमलावर होना चाहिए। भाजपा प्रदेश संगठन हालांकि रमन सिंह के साथ खड़ा तो दिखता है लेकिन जानकार कहते हैं यह सब दिखावे के लिए है असल में यह लड़ाई अकेले रमन सिंह ही लड़ रहे हैं, इसमें केन्द्रीय नेतृत्व से भी उन्हें कोई साथ नहीं मिल रहा है।

रमन सिंह की चुप्पी पर उन्हें जानने वालों का अपना अलग ही मत है उनका कहना है कि रमन सिंह की शैली हमेशा चुप रहकर काम करने की रही है। 15 साल सरकार उन्होंने चलाई जिसका एक कारण उनका जब जरूरी हो तब बोलना ही बड़ा कारण है। ऐसे में वे सक्रीय हैं और सब मुद्दों पर नजर भी बनाएं हैं और सही मौके की तलाश कर रहे हैं। यह बात सच हो भी सकती है लेकिन मोदी-शाह और भूपेश के राजनीति में आने के बाद अब सियासत में खुलकर हमले किए जाते हैं। जो खामोश रहता है उसे आरोपी या हारा हुआ समझ लिया जाता है। दूसरी बात रमन सिंह की चुप्पी का सीधा असर भाजपा के कार्यकर्ताओं पर पड़ रहा है क्योंकि उन पर जो एफआईआऱ की जा रही है उस पर भी डॉ रमन कुछ नहीं बोलते।

आलम यह है कि भाजपा के कार्यकर्ता नेतृत्वविहीन नजर आ रहे हैं, जिस समर्पण और मेहनत के लिए भाजपा जानी जाती है वह छत्तीसगढ़ में नदारद है, यही कारण है दंतेवाड़ा हार गए और चित्रकोट भी मानसिक रूप से भाजपा हार ही चुकी है क्योंकि बड़े नेता अब भी रायपुर में ही जमे हैं। कोई विशेष रणनीति और पुरानी हार से सबक भी भाजपा में नहीं दिख रहा है।

डॉ सिंह की यह चुप्पी कब तक रहेगी। क्या डॉ रमन बेहद अकेले हो गए हैं या फिर भूपेश सरकार के हमलावर तेवरों से वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या किया जाए। जो भी हो डॉ रमन सिंह की लोकप्रियता आज भी छत्तीसगढ़ में है। उन्होंने छत्तीसगढ़ को बीमारू राज्य से विकसित राज्यों की श्रेणी में लाकर खड़ा किया है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। जनता आज भी रमन सिंह को पसंद करती है।
डॉ सिंह के मौन से भाजपा ही नहीं आम जनता भी परेशान है क्योंकि कांग्रेस सरकार के वादाखिलाफी पर कोई उनके साथ नहीं है। जनता अकेले अपनी लड़ाई लड़ रही है। चाहे नौकरी से निकाले गए अनियमित कर्मचारी हों, नौकरी की तलाश में भटकते युा हों, शराबबंदी के लिए लड़ी महिलाएं हों और पूर्ण कर्जमाफी के लिए किसान और आदिवासी हों। सब अपनी-अपनी लड़ाई खुद ही लड़ रहे हैं।

भाजपा में डॉ. रमन सिंह के अलावा कोई इतना बड़ा नेता नहीं है जो बागडोर सम्हाल सके ऐसे में डॉ सिंह को फिर से ताकत के साथ विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। क्योंकि एक साल निकल गया है अब चार साल और बाकि है, कांग्रेस का जनादेश भी बड़ा है इसलिए उन्हें यदि फिर से जंग में आना है तो लड़ अभी से तेज करनी होगी। जनता के साथ मिलकर जनता की लड़ाई लड़नी होगी। क्योंकि विकास के लिए लड़ाई विपक्ष में रहते हुए भी की जा सकती है तभी उन्हें सही अर्थों में छत्तीसगढ़ महतारी का सेवक कहा जाएगा।